Tuesday, September 1, 2020

अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए विदेशों से लोग आते हैं भारत...

01 सितंबर 2020


भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता है कि जीते-जी तो विभिन्न संस्कारों के द्वारा, धर्मपालन के द्वारा मानव को समुन्नत करने के उपाय बताती ही है लेकिन मरने के बाद भी, अंत्येष्टि संस्कार के बाद भी जीव की सदगति के लिए किये जाने योग्य संस्कारों का वर्णन करती है।




‘श्राद्ध’ पितृऋण चुकाने के लिए अत्यंत आवश्यक माना जाता है। श्राद्धविधि में किए जानेवाले मंत्रोच्चारण में पितरों को गति देने की सूक्ष्म शक्ति समाई हुई होती है। श्राद्ध में पितरों को तर्पण करने से वे संतुष्ट होते हैं। श्राद्धविधि करने से पितरों को मुक्ति मिलती है और हमारा जीवन भी सुसह्य हो जाता है।

अपने पुर्वजों के लिए हिन्दू धर्म में किया जानेवाला ये संस्कार विदेशी लोगों को भी ज्ञात है और शायद यही कारण है कि, कई विदेशी लोग अपने पुर्वजों को मुक्ति दिलाने की यह विधि करने के लिए भारत आते हैं एवं पूरी श्रद्धा से यह विधि करते हैं । पिछले साल यह विधि करने के लिए रूस की नताशा सप्रबनोभआ, सरगे और एकत्रिना ने धर्मनगरी गया आकर अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान किया था।

गया में पिंडदान किया रुसी नागरिकों ने

इन लोगों ने ऐतिहासिक विष्णुपद मंदिर, फल्गु के देवघाट, प्रेतशिला और रामशिला वेदी पर पिंडदान किया और पूर्वजों के लिए स्वर्गलोक की कामना की। इन लोगों ने विष्णुपद मंदिर में पूजा अर्चना की। मीडिया से बात करते हुए इन लोगों ने कहा कि, सनातन धर्म के बारे में पढ़ा था जिसमें पिंडदान को काफी महत्वपूर्ण माना गया है और इस परंपरा को भारतीय वेशभूषा में संपन्न करने के बाद उनकी आकांक्षा आज पूरी हो गयी है !

आपको बता दें कि वर्ष 2017 में मोक्ष स्थली गया में पितरों की मुक्ति के महापर्व पितृपक्ष मेला के दौरान देवघाट पर अमेरिका, रूस, जर्मनी और स्पेन के 20 विदेशी नागरिकों ने अपने पितरों की मुक्ति की कामना को लेकर पिंडदान व तर्पण किया था। इनमें से एक जर्मनी की इवगेनिया ने कहा था कि, भारत धर्म और अध्यात्म की धरती है। गया आकर मुझे आंतरिक शांति की अनुभूति हो रही है। मैं यहां अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करने आई हूं।

इन विदेशियों को हिन्दू धर्म के अनुसार आचरण करते देख, हिन्दू धर्म की महानता हमारें ध्यान में आती है। माता-पिता तथा अन्य निकट संबंधियों की मृत्युपरांत की यात्रा सुखमय एवं क्लेशरहित हो तथा उन्हें सद्गति मिले, इस हेतु किया जानेवाला संस्कार है ‘श्राद्ध’। श्राद्धविधि करने से पितरों की कष्ट से मुक्ति हो जाती है और हमारा जीवन भी सुसह्य हो जाता है। परंतु दुर्भाग्यवश आज हिंदुओं को धर्म मे बताई गई ऐसी विधी करना पिछडापन लगता है। उनके मॉडर्न जीवनशैली को श्राद्ध करने जैसी कृति अंधश्रद्धा लगती है।

हिन्दू समाज की यह दु:स्थिती धर्मशिक्षा का महत्त्व दर्शाती है। आज हिंदुओं को धर्मशिक्षा न मिलने के कारण ही उनका इस प्रकार अध:पतन हो रहा है। आज ऐसी स्थिति है कि, विदेशों से आकर श्रद्धालु हिन्दू धर्म तथा अध्यात्म के बारे में जानकारी प्राप्त कर हिन्दू धर्म के अनुसार आचरण करने लगें हैं। वही हिन्दू धर्म के उदगमस्थान तथा पुण्यभूमी भारतवर्ष के कई हिंदुओं को ही आज धर्माचरण करना पिछड़ेपन जैसे लगता है।

मृत्यु के बाद जीवात्मा को उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ कर्मानुसार स्वर्ग नरक में स्थान मिलता है। पाप-पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः मृत्युलोक (पृथ्वी) में आता है। स्वर्ग में जाना यह पितृयान मार्ग है एवं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना यह देवयान मार्ग है।

पितृयान मार्ग से जाने वाले जीव पितृलोक से होकर चन्द्रलोक में जाते हैं। चंद्रलोक में अमृतान्न का सेवन करके निर्वाह करते हैं। यह अमृतान्न कृष्ण पक्ष में चंद्र की कलाओं के साथ क्षीण होता रहता है। अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को उनके लिए आहार पहुँचाना चाहिए, इसीलिए श्राद्ध एवं पिण्डदान की व्यवस्था की गयी है। शास्त्रों में आता है कि अमावस के दिन तो पितृतर्पण अवश्य करना चाहिए।

आपको बता दें कि भगवान श्रीरामचन्द्रजी भी श्राद्ध करते थे। जिन्होंने हमें पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, हममें भक्ति, ज्ञान एवं धर्म के संस्कारों का सिंचन किया उनका श्रद्धापूर्वक स्मरण करके उन्हें तर्पण-श्राद्ध से प्रसन्न करने के दिन ही हैं श्राद्धपक्ष। इस दिनों में पितृऋण से मुक्त होने के लिए हमे श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

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