09-Sep-2017
शक्तिधर #परशुराम का चरित्र एक ओर जहाँ शक्ति के केन्द्र सत्ताधीशों को #त्यागपूर्ण आचरण की #शिक्षा देता है वहीं दूसरी ओर वह शोषित #पीड़ित क्षुब्ध #जनमानस को भी उसकी शक्ति और #सामर्थ्य का एहसास दिलाता है । #शासकीय दमन के विरूद्ध वह क्रान्ति का #शंखनाद है । वह सर्वहारा वर्ग के लिए अपने न्यायोचित अधिकार प्राप्त करने की मूर्तिमंत प्रेरणा है। वह राजशक्ति पर लोकशक्ति का विजयघोष है।
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आज स्वतंत्र भारत में सैकड़ों-हजारों #सहस्रबाहु देश के कोने-कोने में विविध स्तरों पर #सक्रिय हैं । ये कहीं न कहीं #न्याय का #आडम्बर करते हुए भोली जनता को छल रहे हैं, कहीं उसका श्रम हड़पकर अबाध विलास में ही राजपद की सार्थकता मान रहे हैं, तो कहीं #अपराधी #माफिया गिरोह #खुलेआम #आतंक फैला रहे हैं। तब असुरक्षित जन-सामान्य की रक्षा के लिए आत्म-स्फुरित ऊर्जा से भरपूर व्यक्तियों के निर्माण की बहुत आवश्यकता है । इसकी आदर्श पूर्ति के निमित्त परशुराम जैसे प्रखर व्यक्तित्व विश्व इतिहास में विरल ही हैं। इस प्रकार परशुराम का चरित्र शासक और शासित-दोनों स्तरों पर प्रासंगिक है ।
शस्त्र शक्ति का विरोध करते हुए #अहिंसा का ढोल चाहे कितना ही क्यों न पीटा जाये, उसकी आवाज सदा ढोल के पोलेपन के समान #खोखली और #सारहीन ही #सिद्ध हुई है । उसमें ठोस यथार्थ की सारगर्भिता कभी नहीं आ सकी। सत्य हिंसा और अहिंसा के संतुलन बिंदु पर ही केन्द्रित है । कोरी अहिंसा और विवेकहीन पाश्विक हिंसा, दोनों ही मानवता के लिए समान रूप से घातक हैं । आज जब हमारे #राष्ट्र की सीमाएं #असुरक्षित हैं, कभी #कारगिल, कभी #कश्मीर, कभी #बंग्लादेश तो कभी देश के अन्दर #नक्सलवादी शक्तियों के कारण हमारी #अस्मिता का #चीरहरण हो रहा है तब परशुराम जैसे वीर और विवेकशील व्यक्तित्व के नेतृत्व की आवश्यकता है ।
गत शताब्दी में कोरी अहिंसा की उपासना करने वाले हमारे नेतृत्व के प्रभाव से हम जरुरत के समय सही कदम उठाने में हिचकते रहे हैं । यदि सही और सार्थक प्रयत्न किया जाये तो देश के अन्दर से ही प्रश्न खड़े होने लगते हैं। परिणाम यह है कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और व्यवस्थापकों की धमनियों का लहू इतना सर्द हो गया है कि देश की जवानी को व्यर्थ में ही कटवाकर भी वे आत्मसंतोष और आत्मश्लाघा का ही अनुभव करते हैं। अपने नौनिहालों की कुर्बानी पर वे गर्व अनुभव करते हैं, उनकी वीरता के गीत तो गाते हैं किन्तु उनके हत्यारों से बदला लेने के लिए उनका खून नहीं खौलता। प्रतिशोध की ज्वाला अपनी #चमक #खो बैठी है । #शौर्य के #अंगार तथाकथित संयम की राख से ढंके हैं । शत्रु-शक्तियां सफलता के उन्माद में सहस्रबाहु की तरह उन्मादित हैं लेकिन परशुराम अनुशासन और संयम के बोझ तले मौन हैं ।
राष्ट्रकवि दिनकर ने सन् #1962 ई. में #चीनी #आक्रमण के समय देश को ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक से ओजस्वी काव्यकृति देकर सही रास्ता चुनने की प्रेरणा दी थी । युग चारण ने अपने दायित्व का सही-सही निर्वाह किया । किन्तु #राजसत्ता की #कुटिल और अंधी #स्वार्थपूर्ण #लालसा ने हमारे तत्कालीन नेतृत्व के बहरे कानों तक उसकी पुकार ही नहीं आने दी । पांच दशक बीत गये । इस बीच एक ओर साहित्य में परशुराम के प्रतीकार्थ को लेकर समय पर प्रेरणाप्रद रचनाएं प्रकाश में आती रही और दूसरी ओर सहस्रबाहु की तरह विलासिता में डूबा हमारा नेतृत्व #राष्ट्र-विरोधी #षड़यंत्रों को देश के भीतर और बाहर दोनों ओर #पनपने का अवसर देता रहा । परशुराम पर केन्द्रित साहित्यिक रचनाओं के संदेश को व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार करके हम साधारण जनजीवन और राष्ट्रीय गौरव की रक्षा कर सकते हैं ।
#महापुरूष किसी एक देश, एक युग, एक जाति या एक धर्म के नहीं होते । वे तो सम्पूर्ण मानवता की, समस्त विश्व की, समूचे #राष्ट्र की #विभूति होते हैं । उन्हें किसी भी सीमा में बाँधना ठीक नहीं । दुर्भाग्य से हमारे यहां स्वतंत्रता में महापुरूषों को स्थान, धर्म और जाति की बेड़ियों में जकड़ा गया है । विशेष महापुरूष विशेष वर्ग के द्वारा ही सत्कृत हो रहे हैं । एक समाज विशेष ही विशिष्ट व्यक्तित्व की जयंती मनाता है । अन्य जन उसमें रूचि नहीं दर्शाते,अक्सर ऐसा ही देखा जा रहा है। यह स्थिति दुभाग्यपूर्ण है । महापुरूष चाहे किसी भी देश, जाति, वर्ग, धर्म आदि से संबंधित हो, वह सबके लिए समान रूप से पूज्य है, अनुकरणीय है ।
इस संदर्भ में भगवान परशुराम जो उपर्युक्त विडंबनापूर्ण स्थिति के चलते केवल ब्राह्मण वर्ग तक सीमित हो गए हैं । समस्त #शोषित वर्ग के लिए प्रेरणा स्रोत #क्रान्तिदूत के रूप में स्वीकार किये जाने योग्य हैं और सभी शक्तिधरों के लिए संयम के अनुकरणीय आदर्श हैं ।
#भा माना -#अध्यात्म
#रत माना - उसमें #रत रहने वाले
"जिस देश के लोग #अध्यात्म में #रत रहते हैं उसका नाम है #भारत।"
#भारत की #गरिमा उसके #संतों से ही रही है सदा । भगवान भी बार-बार जिस धरा पर अवतरित होते आये हैं वो भूमि भारत की भूमि है । किसी भी देश को माँ कहकर संबोधित नहीं किया जाता पर भारत को "भारत माता" कहकर संबोधित किया जाता है क्योंकि यह देश आध्यात्मिक देश है,संतों महापुरुषों का देश है । भौतिकता के साथ-साथ यहाँ आध्यात्मिकता को भी उतना ही महत्व दिया गया है। पर आज के #पाश्चात्य कल्चर की ओर बढ़ते कदम इसकी गरिमा को भूलते चले जा रहे हैं । #संतों महापुरुषों का #महत्व,उनके #आध्यात्मिक स्पन्दन #भूलते जा रहे हैं ।
संत और समाज में #खाई खोदने में एक #बड़ा वर्ग #सक्रीय है । #मिशनरियां सक्रीय हैं । #मीडिया सक्रीय है । #विदेशी #कम्पनियाँ सक्रीय हैं । विदेशी फण्ड से चलने वाले #NGOs सक्रीय हैं । कई #राजनैतिक दल अपने फायदे के लिए #सक्रीय हैं ।
इतने #सब वर्ग जब एक साथ #सक्रीय होंगे तो किसी के भी प्रति भी गलत धारणाएं #समाज के मन में उत्पन्न करना बहुत ही आसान हो जाता है और यही हो रहा है हमारे संत समाज के साथ ।
पिछले कुछ सालों से एक दौर ही चल पड़ा है हिन्दू संतों को लेकर । हर #संत को सिर्फ #आरोपों के #आधार पर सालों #जेल में #रखा जाता है फिर #विदेशी फण्ड से चलने वाली #मीडिया उनको अच्छे से #बदनाम करके उनकी #छवि समाज के सामने इतनी #धूमिल कर देती है कि समाज उन झूठे आरोपों के पीछे की सच्चाई तक पहुँचने का प्रयास ही नहीं करता ।
पर अब #समाज को #जगना होगा, #संतों के साथ हो रहे #अन्याय को समझने के लिए । अगर अब भी #हिन्दू #मौन दर्शक बनकर देखता रहा तो #हिंदुओं का #भविष्य #खतरे में हैं ।

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