
श्री #गुरु हरगोविंदसिंहजी जयंती : 21 जून

संतत्व और शूरता का संगम!

#सिक्खों के छठवें गुरु श्री #हरगोविंदसिंहजी के बारे में भाई गुरुदासजी ने कहा है :

अरजन काईया पलटि कै मूरति हरिगोवद सवारी ।
दलभंजन गुर सूरमा वड जोधा बहु पर उपकारी ।।

संवत् 1652 में आषाढ़ कृष्ण पक्ष 6 को गाँव वडाली, जिला #अमृतसर में पंचम गुरु श्री #अर्जुनदेवजी के घर माताश्री #गंगा देवीजी की कोख से गुरु हरगोविंदसिंहजी का जन्म हुआ ।

मात्र 11 वर्ष की उम्र में आपको गुरुगद्दी पर विराजित किया गया । श्री गुरु अर्जुनदेवजी की शहादत के बाद पुरातन गुरु-मर्यादा के अनुसार सेली एवं माला-फकीरी के चिह्न धारण करने की जगह श्री गुरु हरगोविदसिंहजी ने दो तलवारें, एक दायें एक बायें तरफ धारण की । इसका कारण बताते हुए आपने कहा था कि....

"अब #भक्ति के साथ शूरवीरता का होना भी ज़रूरी है इसलिए शूरवीरता के चिह्न धारण करने की आवश्यकता है । केवल सेली तथा माला अपनाने का अब यह समय नहीं रहा।

उनकी ये तलवारें 'मीरी और 'पीरी के नाम से विख्यात हैं । कैसे होते हैं #महापुरुष ! वर्तमान समाज की उन्नति जिसमें निहित हो, उसी के अनुसार उनकी चेष्टाएँ होती हैं ।

#गुरु हरगोविंदसिंहजी भक्ति के साथ-साथ शूरवीरता का भी उपदेश देते थे । वे स्वयं घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र का भी अभ्यास करते थे । इसी प्रकार अपने भक्तों से भी करवाते थे ।

उस वक्त #दिल्ली के तख्त पर जहाँगीर था । #जहाँगीर का दीवान चंदू अपनी बेटी की शादी हरगोविंदसिंहजी से करवाना चाहता था लेकिन अर्जुनदेवजी ने यह रिश्ता ठुकरा दिया था ।

अतः द्वेषवश चंदू जहाँगीर के कान भरता रहता था कि : "गुरु अर्जुनदेव का पुत्र हरगोविंदसिंह अपने पिता की शहीदी का बदला लेने के लिए जंग का सामान तथा सेना इकट्ठी कर रहा है । उसने गद्दी लगाकर बैठनेवाली अपनी पुरानी मर्यादा छोडकर अपने बैठने के लिए तख्त बना लिया है । उस तख्त पर बैठकर बादशाहों की तरह अदालत लगाता है तथा आदेश देता है ।

फकीर होकर तख्त पर बैठना ? तख्त बादशाहों के लिए होते हैं, फकीरों के लिए गद्दियाँ होती हैं । वह अपने-आपको सच्चा बादशाह कहलाता है । उसको अगर अभी वश में न किया गया तो फिर वह किसी दिन भी हुजूर की बादशाही को खतरा पैदा कर सकता है ।

चंदू की ऐसी उकसानेवाली बातें सुनकर जहाँगीर ने हरगोविंदसिंहजी को दिल्ली बुला लिया एवं ग्वालियर के किले में कैद करवा दिया । उस समय ग्वालियर का किला मुगल बादशाहों के विरोधियों तथा राजघरानों के लिए एक बहुत प्रसिद्ध बंदीगृह बना हुआ था । जो एक बार इसमें बंद किया जाता था वह फिर मरकर ही बाहर निकलता था ।

इससे माता को चिंता हो गयी एवं उन्होंने साँर्इं मियाँ मीरजी के पास संदेश भिजवाया । जहाँगीर साँर्इं मियाँ मीरजी की बड़ी इज्जत करता था । अतः जब उनके द्वारा चंदू की शिकायत की असलियत का पता चला तब जहाँगीर ने हरगोविंदसिंहजी को रिहा करने का आदेश दे दिया ।

किन्तु हरगोविंदसिंहजी अकेले रिहा कैसे होते ?

उस वक्त उस किले में 52 #राजपूत राजा एवं राजघराने के लोग भी कैद थे, जो खुसरो की मदद करने के आरोप में बंदी थे ।

गुरु हरगोविंदसिंहजी ने उनसे बादशाह के प्रति वफादार रहने का वचन लेकर तथा जहाँगीर को स्वयं उनकी वफादारी का भरोसा देकर उनको भी कैद में से छुडवाया । इस परोपकार के परिणामस्वरूप ये 'बंद छोड पीर के नाम से पहचाने जाने लगे ।

कहा जाता है कि : इसकी यादगार के रूप में ग्वालियर के किले में एक चबूतरे पर आज भी ‘बंद छोड पीर का बोर्ड लगा हुआ है ।

रिहाई के बाद जहाँगीर प्रगट तौर पर गुरु हरगोविंदसिंहजी से प्रेम करता था किन्तु भीतर से उन पर भरोसा नहीं करता था । जहाँगीर ने उनके पिता गुरु अर्जुनदेवजी को कष्ट दे-देकर मरवाया था। उसको भय था कि : 'कहीं ये अपने पिता का वैर लेने के लिए मुझसे आज़ाद होकर मेरे विरुद्ध कोई बगावत न कर दें । इसलिए जहाँगीर हमेशा उन्हें अपनी निगरानी में ही रखना चाहता था किन्तु यह कब तक संभव हो पाता ?

संवत् 1684 में जहाँगीर की मृत्यु हुई । उसका बड़ा पुत्र #शाहजहाँ दिल्ली के तख्त पर बैठा । शाहजहाँ की सेना के साथ गुरु हरगोविंदसिंहजी के चार युद्ध हुए । प्रत्येक युद्ध में यवनों की सेना कई गुना ज्यादा होते हुए भी विजय गुरु हरगोविंदसिंहजी की ही हुई ।

सच है, जहाँ धर्म होता है वहाँ विजय होती ही है ।

सन् 1688 में नदौन का युद्ध हुआ जो जम्मू के नवाब अलफ खाँ के साथ हुआ था। सन् 1689 में पहाड़ी #नवाब हुसैन खाँ ने गुरुजी से युद्ध छेड़ दिया, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। सन् 1699 को वैशाखी वाले दिन गुरुजी ने केशगढ़ साहिब में पंच पियारों द्वारा तैयार किया हुआ अमृत सबको पिलाकर खालसा पंथ की नींव रखी।

खालसा का मतलब है वह सिक्ख जो गुरु से जुड़ा है। वह किसी का गुलाम नहीं है, वह पूर्ण #स्वतंत्र है। सन् 1700 से 1703 तक आपने पहाड़ी राजाओं से आनंदपुर साहिब में चार बड़े युद्ध किए व हर युद्ध में विजय प्राप्त की। पहाड़ी राजाओं की प्रार्थना पर गुरुजी को पकड़ने के लिए औरंगजेब ने सहायता भेजी।

मई सन् 1704 की #आनंदपुर की आखिरी लड़ाई में मुगल फौज ने आनंदपुर साहिब को 6 महीने तक घेरे रखा। अंत में गुरुजी सिक्खों के बहुत मिन्नतें करने पर अपने कुछ सिक्खों के साथ आनंदपुर साहिब छोड़कर चले गए।

#सिरसा नदी के किनारे एक भयंकर युद्ध हुआ, इसमें दो छोटे साहिबजादे माता रूजरी बिछुड़ गए। 22 दिसंबर सन् 1704 में 'चमकौर का युद्ध' नामक ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें 40 सिक्खों ने 10 लाख फौज का सामना किया। इस युद्ध में बड़े साहिबजादे अजीतसिंह और जुझारसिंहजी शहीद हुए।

अंतिम युद्ध संवत् 1704 के बाद उन्होंने अपना निवास-स्थान कीर्तिपुर में बना लिया एवं दूर-दूर जाकर सिक्ख धर्म का प्रचार किया । कश्मीर, पीलीभीत, बार और मालवा देशों में जाकर लाखों लोगों को आपने मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर किया । आप अनेकों #मुसलमानों को सिक्खी-मण्डल में ले आये एवं देश-देशांतरों में उदासी प्रचारकों को भेजकर श्रीगुरु #नानकदेवजी का झंडा फहराया ।

संवत् 1704 में चैत्र शुक्ल पक्ष 5 तदनुसार 3 मार्च 1644 को आपने अपने योग्य पोते श्री #हरिरायजी को गुरुगद्दी सौंपकर परलोकगमन किया ।
(ऋषि प्रसाद : जून २००१)
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