Friday, December 11, 2020

विभाजनकारी विषबेल बढ़ाने की कोशिश...

11 दिसंबर 2020


पिछले कुछ समय से पंजाब में जिस प्रकार की घटनाएं सामने आई हैं उसने पाकिस्तान में बैठे इस्लामी कट्टरपंथियों और जिहादियों के साथ ही पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ और खालिस्तानी आतंकियों के बीच एक बार फिर से हो रहे विषाक्त संयोजन का पर्दाफाश कर दिया है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि पंजाब को पुन: अलगाववाद और आतंकवाद की आग में झोंकने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।




आतंकवादी जाकिर मूसा सहित अन्य कश्मीरी आतंकियों की पंजाब में बढ़ती गतिविधियों से सुरक्षाबल चौकस हैं। पंजाब का हालिया घटनाक्रम और खासकर निरंकारियों पर हमले की घटना 1980-90 दशक के घावों की याद दिला रही है। जरनैल सिंह भिंडरांवाले का उभार, स्वर्ण मंदिर में ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के परिणामस्वरूप दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में सिखों का ‘प्रायोजित’ नरसंहार आज भी अधिकांश भारतीयों के मानस में पीड़ा और दहशत पैदा करता है। यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान भारत की एकता और अखंडता को नष्ट कर उसे दार-उल-इस्लाम में परिवर्तित करने के अपने अधूरे एजेंडे को पूरा करना चाहता है। इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु उसने खालिस्तान जैसे ¨हसक आंदोलन को पहले जन्म दिया और उसे संरक्षण दे रहा है।

यक्ष प्रश्न है कि जिस पंथ की उत्पत्ति सनातन संस्कृति की रक्षा करने हेतु हुई उसके कुछ लोग क्यों पाकिस्तान के सहयोगी बन रहे हैं ? इस विषबेल की जड़ें 1857 की क्रांति से जुड़ी हैं जिसकी अंग्रेज कभी पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे। इसके लिए अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की विभाजनकारी नीति अपनाई। हिंदू-मुस्लिम विवाद इसमें सबसे सरल रहा और औपनिवेशिक शासकों ने मुस्लिम अलगाव पैदा करने लिए सैयद अहमद खान जैसे नेता चुने।

अंग्रेजों के लिए सबसे मुश्किल काम हिंदुओं और सिखों के बीच कड़वाहट पैदा करना था। इसका कारण स्पष्ट था, क्योंकि सिख पंथ के जन्म से ही पंजाब का हर हिंदू, गुरुओं के प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और प्रत्येक सिख स्वयं को हिंदुओं और धर्म का रक्षक मानता था। इस अनोखे संबंध की नींव सिख गुरुओं ने ही रखी थी। इसलिए अंग्रेजों को सिख समाज में वैसा विश्वासपात्र नहीं मिला जैसा उन्हें मुस्लिम समुदाय में सैयद अहमद खान के रूप में प्राप्त हो गया था। तब अंग्रेजों ने आयरलैंड में जन्मे अपने ही एक अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलीफ का चुनाव किया।

मैकॉलीफ ने पहले 1862 में इंपीरियल सिविल सर्विस (आइसीएस) में प्रवेश लिया और फिर 1864 में उन्हें पंजाब भेज दिया गया। इसी कालखंड में उन्होंने सिख पंथ को अपनाया और भाई काहन सिंह नाभा की सहायता से पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। बाद में, उनकी छह खंडों में आई पुस्तक ‘द सिख रिलीजन-इट्स गुरु, सैक्रेड राइटिंग्स एंड ऑथर’ भी प्रकाशित हुई। भाई काहन सिंह प्रसिद्ध सिख शब्दावलीकार और कोशकार थे। उन्होंने ‘सिंह सभा आंदोलन’ में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मैकॉलीफ की बौद्धिक प्रेरणा से ही 1897-98 में ‘हम हिंदू नहीं’ नाम से प्रकाशन निकाला था जिसमें उल्लिखित विचारधारा के आधार पर पाकिस्तान ने 1970-80 के दशक में खालिस्तान आंदोलन खड़ा किया और आज भी वह उसे अपने एजेंडे के अनुरूप सुलगाता रहता है। करतारपुर गलियारे के पीछे की उसकी मंशा पर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी संदेह जता दिया है।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में एक उच्च अंग्रेज अधिकारी का सिख पंथ अपनाना महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। मैकॉलीफ की पुस्तक की प्रस्तावना में इतिहासकार और लेखक खुशवंत सिंह ने लिखा था, ‘मैकॉलीफ की नियुक्ति के पीछे ब्रिटिश शासकों का कुटिल उद्देश्य निहित था। लॉर्ड डलहौजी ने सिख साम्राज्य को हड़पने के बाद पाया कि उस समय हिंदू और सिखों में विभाजन की कोई रेखा ही नहीं थी।’ आगे खुशवंत सिंह ने लिखा, ‘ब्रिटिश प्रशासकों को लगा कि स्थिति उनके अनुकूल तब होगी जब वह खालसा सिखों को उनकी विशिष्ट और अलग पहचान के लिए प्रोत्साहित करेंगे।’ मैकॉलीफ ने भी धीरे-धीरे सिखों को मुख्यधारा से दूर करते हुए अंग्रेजों का विश्वासपात्र सहयोगी बताने का प्रयास किया। उन्होंने ‘द सिख रिलीजन-खंड-1’ में लिखा , ‘एक दिन गुरु तेग बहादुर अपनी जेल की ऊपरी मंजिल पर थे। तब औरंगजेब को लगा कि गुरु दक्षिण दिशा स्थित शाही जनाना (महिलाओं के कक्ष) की ओर देख रहे हैं। औरंगजेब ने उन पर शिष्टाचार के उल्लंघन करने का आरोप लगा दिया। तब गुरु ने कहा-सम्राट औरंगजेब, मैं तुम्हारे निजी कक्ष या फिर तुम्हारी रानियों की ओर नहीं देख रहा था। मैं तो उन यूरोपीय निदेशकों की तलाश में था जो समुद्र पार करके तुम्हारे साम्राज्य को नष्ट करने के लिए यहां आ रहे हैं।’ इसका अर्थ यह बताया गया कि मैकॉलीफ ने भारत पर औपनिवेशिक शासन पर सिख गुरुओं की मुहर लगवाने का प्रयास किया था।

अंग्रेजों की विभाजनकारी रणनीति का परिणाम जल्द ही सामने आ गया। 1 मई 1905 को स्वर्ण मंदिर के तत्कालीन प्रबंधक ने परिसर में ब्राह्मणों के पूजा-पाठ पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद वहां से हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया गया। पंजाब के अन्य गुरुद्वारों में भी ऐसा ही हुआ। जिस जनरल डायर ने 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार की पटकथा लिखी थी उसे अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ने आमंत्रित कर सिरोपा भेंट किया। वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार, तत्कालीन पंजाब में सिखों की जनसंख्या 10 लाख थी। तब जनगणना आयुक्त ने निर्देश दिया कि हिंदुओं से अलग सिखों की गणना की जाए। परिणामस्वरूप, 1911 में सिखों की आबादी एकाएक बढ़कर 30 लाख हो गई। अंग्रेजों ने ब्रिटिश सेना में अलग से खालसा रेजीमेंट का गठन किया जिसमें सैनिकों को ‘पांच ककार’ धारण करने का स्पष्ट निर्देश था। ऐसा इसलिए किया गया ताकि खालसा और सिख गुरुओं के अन्य शिष्यों के बीच अंतर दिखाया जा सके।

अंग्रेजों द्वारा दी गई पहचान समाज को खंडित करती है और पाकिस्तान सहित देश के शत्रुओं को सहायता देती है। विडंबना है कि भारत में इन विभाजनकारी नीतियों का अनुसरण आज भी किया जा रहा है। सिख गुरुओं द्वारा दिखाया गया मार्ग न केवल भारत को जोड़ता है, बल्कि वैश्विक मानवता में एकता का भी संदेश देता है। स्पष्ट है कि आज इसकी आवश्यकता और बढ़ गई है कि सिख गुरुओं की परंपराओं, दर्शन और जीवनशैली का अनुसरण किया जाए ताकि उस विभाजनकारी मानसिकता का सामना किया जा सके जिसे अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य को स्थापित करने हेतु किया था।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं)
साभार- दैनिक जागरण


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