Saturday, February 12, 2022

पहले भी आई थी भयंकर महामारी, स्वामी विवेकानंद ने ऐसे की थी रोकथाम...

04 मई 2021

azaadbharat.org

महामारी और संक्रमणों ने सम्पूर्ण इतिहास में अनेकों बार मानव जाति को बर्बाद किया है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान के आधुनिक दिनों तक हमने इतिहास के माध्यम से कई महामारियों और चिकित्सा आपात स्थितियों का अनुभव किया है। कुछ ने तो ऐसा भयावह रूप लिया था कि चारों ओर सिर्फ विनाश ही विनाश दिखाई दिया था, जैसे- ‘बुबोनिक प्लेग’ जो चौदहवीं शताब्दी में आया था और उसे ब्लैक डेथ के रूप में भी जाना जाता है।



जिसमें लाखों मनुष्यों की मृत्यु हुई थी और इसे मानव इतिहास के सबसे घातक महामारियों में से एक माना जाता है। 


पिछले एक साल में और विशेष रूप से पिछले एक महीने में कुछ इसी तरह की स्थितियाँ विकसित हुई हैं- चीन के वुहान में पैदा हुई महामारी कोविड-19 के कारण।

खासकर जब दुनिया भर में मरनेवालों की संख्या तीस लाख से अधिक हो गई है और एक नए संस्करण जिसे हम अभी ”डबल म्यूटेंट वेरिएंट” के नाम से जानते हैं उसका भारी प्रकोप दिखने को मिल रहा है। भारत में भी जहाँ एक तरफ टीकाकरण अभियान को 100 दिन पूर्ण हो गए हैं और अब 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए यह अभियान 1 मई से शुरू हो चुका है वहीं दूसरी तरफ नागरिकों और सरकारों के लिए अभी चुनौतियाँ कम नहीं हुई है।


इस दौर में हमें मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से मजबूत करने के लिए कुछ ऐसा चाहिए जिसे हम इन परिस्थितयों से जोड़कर भी देख सकें और वह हमें हर रूप से मजबूत भी करे।

1898 के बंगाल में आई प्लेग महामारी के दौरान योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद द्वारा लिखित 122 वर्ष पुराने 'प्लेग मैनिफेस्टो' पर हमारी खोज रूक सकती है।


यह मार्च 1898 का समय था, स्वामी विवेकानंद कलकत्ता प्रवास पर थे और वह नीलांबर मुखर्जी के बाग घर बेलूर में एक मठ में रुके हुए थे। उन्हें स्वास्थ्य संबंधी अनेकों समस्याएं हो रही थीं और सुधार के कोई संकेत नहीं थे, बल्कि यह लगातार बिगड़ रहा था। जिसको देखते हुए उनके गुरु भाइयों ने उन्हें दार्जिलिंग में प्रवास करने के लिए कहा क्योंकि वहाँ की पिछली यात्रा में हुए जलवायु परिवर्तन से स्वामी विवेकानंद को शारीरिक लाभ हुआ था।

स्वामी विवेकानंद 30 मार्च 1898 को दार्जिलिंग के लिए रवाना हुए और लगभग एक महीना वहाँ बिताया। हालाँकि वहाँ तक पहुँचने के लिए उन्हें पहाड़ पर अत्यधिक चढ़ाई करनी पड़ी और उस वर्ष जल्दी बारिश होने के कारण उन्हें बुखार हो गया और बाद में खाँसी और जुकाम भी रहा।

अप्रैल के अंत में स्वामी विवेकानंद ने वापस कलकत्ता लौटने की योजना बनाई लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके क्योंकि उन्हें फिर से बुखार और फिर इन्फ्लुएंजा का संक्रमण हो गया था। इस बीच 29 अप्रैल को उनके गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद ने उन्हें सूचित किया कि कलकत्ता में प्लेग महामारी फैल गई है, कलकत्ता से बहुत से लोग पलायन कर रहे हैं और यदि आपका स्वास्थ्य अभी ठीक नहीं है तो डॉक्टर से सलाह लें और कुछ दिनों के बाद ही वापसी करें।

जैसे ही स्वामी विवेकानंद को खबर मिली, वे बीच में किसी भी स्थान पर रुके बिना कलकत्ता जाने के लिए तैयार हो गए। कलकत्ता पहुँचते ही वह राहत उपायों को आयोजित करके प्लेग और भगदड़ दोनों से निपटने के मिशन में खुद को झोंक दिया। विवेकानंद ने सबसे पहले कलकत्ता के लोगों को एक पत्र लिखा, जिसको हम सब ‘प्लेग मैनिफेस्टो’ के नाम से जानते हैं।


स्वामी विवेकानंद ने मूल रूप से अंग्रेजी में प्रारूपित तथा हिंदी और बंगाली में अनुवादित अपने पत्र ‘प्लेग मैनिफेस्टो’ में बंगाल के लोगों को ‘डर से मुक्त रहने के लिए कहा क्योंकि भय सबसे बड़ा पाप है।’ स्वामी को पता था कि महामारी के वातावरण ने मानव को कमजोर कर दिया है। इसीलिए उन्होंने लोगों से आह्वान किया- ‘मन को हमेशा खुश रखो। एक दिन तो मृत्यु होती ही है सबकी। कायरों को बार-बार मौत की वेदना का सामना करना पड़ता है, केवल अपने मन में भय के कारण।’

उन्होंने इस डर को दूर करने का आग्रह किया, ”आओ, हम इस झूठे भय को छोड़ दें और भगवान की असीम करुणा पर विश्वास रखें, कमर कस लो और कार्रवाई के क्षेत्र में प्रवेश करो। हमें शुद्ध और स्वच्छ जीवन जीना चाहिए। रोग, महामारी का डर आदि, ईश्वर की कृपा से समाप्त हो जाएगा।”


अपने प्रेरणादायक शब्दों के बाद वह इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए- इन बिंदुओं पर प्रकाश डालते हैं। वह स्वच्छ रहने के लिए घर और उसके परिसर, कमरे, कपड़े, बिस्तर, नाली आदि को हमेशा साफ रखने के लिए कहते हैं। वह आगे लिखते हैं कि बासी, खराब भोजन न करें; इसके बजाय ताजा और पौष्टिक भोजन लें। कमजोर शरीर में बीमारी की आशंका अधिक होती है। यह सुनिश्चित किया गया था कि कलकत्ता के हर घर में प्लेग मैनिफेस्टो की प्रतियाँ पहुँचे।


परभावितों के लिए स्वामी विवेकानंद राहत अभियान शुरू करने के लिए

यार थे। जब उनके गुरुभाई ने उनसे पैसे के स्रोत के बारे में पूछा तो स्वामी जी ने कहा, “क्यों, यदि आवश्यक हो, तो हम नए खरीदे गए मठ-मैदानों को बेच देंगे। हम संन्यासी हैं और भिक्षा पर रहते हैं तथा पहले की तरह फिर से पेड़ के नीचे सोना शुरू कर देंगे।”

ऐसी नौबत नहीं आई और उन्हें काम के लिए पर्याप्त धन मिल गया था। भूमि का एक व्यापक भूखंड सरकारी अधिकारियों के साथ समन्वय करके किराए पर लिया गया था जहाँ आइसोलेशन सेंटर स्थापित किए गए थे। राहत कार्य युद्ध स्तर पर किया गया और स्वामी विवेकानंद द्वारा अपनाए गए उपायों ने लोगों को विश्वास दिलाया कि वे महामारी से लड़ सकते हैं। लोगों ने देखा कि संन्यासियों का काम केवल वेदांत का प्रचार करना नहीं है, बल्कि अपने देशवासियों के लिए वेदांत की शिक्षाओं को मूर्त रूप में लाना है।


अगले वर्ष मार्च महीने में कलकत्ता में दूसरी बार प्लेग ने दस्तक दी। स्वामी विवेकानंद ने बिना समय गँवाते हुए राहत कार्य के लिए एक समिति का गठन किया जिसमें भगिनी निवेदिता को सचिव और उनके गुरुभाई स्वामी सदानंद को पर्यवेक्षक और स्वामी शिवानंद, नित्यानंद, और आत्मानंद को सदस्य बनाया गया। सभी ने कलकत्ता के लोगों को सेवा देने के लिए दिन-रात कार्य किया।


विवेकानंद ने आग्रह किया, “भाई, अगर आपकी मदद करने वाला कोई नहीं है, तो बेलूर मठ में श्री भगवान रामकृष्ण के सेवकों को तुरंत सूचना भेजें। हर संभव मदद पहुँचाई जाएगी। माता की कृपा से मौद्रिक सहायता भी संभव हो जाएगी।” शामबाजार, बागबाजार और अन्य पड़ोसी इलाकों में मलिन बस्तियों की सफाई के साथ मार्च 1899 में राहत कार्य शुरू हुआ, वित्तीय सहायता के लिए समाचार पत्रों के माध्यम से गुहार भी लगाई गई।


भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के साथ प्लेग पर अनेकों व्याख्यान दिए। 21 अप्रैल को उन्होंने ‘द प्लेग एंड द ड्यूटी ऑफ स्टूडेंट्स’ पर क्लासिक थिएटर में छात्रों से बात की। सिस्टर निवेदिता ने पूछा, “आपमें से कितने लोग स्वेच्छा से आगे आएँगे और झोपड़ियों की सफाई में मदद करेंगे?” भगिनी और स्वामी के शक्तिशाली शब्दों को सुनने के बाद लगभग पंद्रह छात्रों का एक समूह प्लेग सेवा के कार्य के लिए सामने आया।


एक दिन जब सिस्टर निवेदिता ने देखा कि स्वयंसेवकों की कमी है, तो उन्होंने स्वयं गलियों की सफाई शुरू कर दी। गोरी चमड़ी की महिला को अपनी गलियों में सफाई करते देखकर इलाके के युवकों को शर्म महसूस हुई और उन्होंने झाड़ू उठाकर उनका समर्थन किया।


भगिनी निवेदिता ने खुद को अस्थायी रूप से एक ऐसी बस्ती में स्थानांतरित कर लिया था जो प्लेग महामारी से सबसे अधिक प्रभावित थी, जहाँ वह दिन-रात दीवारों को सफ़ेद रंग करने में लगी रहती थी और उन बच्चों की देखभाल करती थी जिनकी माताओं का महामारी से देहांत हो चुका था। संभावित खतरे को नजरअंदाज करते हुए भी वह अपने कार्य में संलग्न रही। उन्होंने अपनी एक अंग्रेजी मित्र, मिसेज कूलस्टन को लिखा, “अंतहीन काम है। केवल यहाँ रहना ही अपने आप में काम है।” अंततः रामकृष्ण मिशन की टोली ने इस बीमारी को नियंत्रित करने में कामयाबी हासिल की।


इसलिए एक जागरूक नागरिक के रूप में हमें आस-पास की अफवाहों पर ध्यान नहीं देना चाहिए और कोरोना महामारी के बचाव के अनुकूल व्यवहार का पालन करते हुए अपने आस-पास के लोगों के लिए अधिक से अधिक मदद करने का और वातावरण को सकारात्मक बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि सरकार बहुत कुछ कर सकती है लेकिन सब कुछ नहीं कर सकती।



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