Monday, February 21, 2022

आयुर्वेद का पतन कब और कैसे शुरू हुआ?

30 मई 2021

azaadbharat.org


सर्वप्रथम हम आयुर्वेद को लेकर उत्पन्न भ्रांतियों के काल को 3 भागों में बाँटते हैं और उस पर चर्चा करते हैं:


1. मुग़ल काल।

2. ब्रिटिश काल।

3. मल्टीनेशनल कंपनियों का काल।



1. मुग़ल काल


मुग़लों के शासन काल में यूनानी हकीमों ने मुस्लिम रोगियों को आयुर्वेद से दूर कर यूनानी की तरफ लाने के लिए यह प्रचारित किया कि इसमें गौमूत्र मिला होता है, जबकि आयुर्वेद की 100 में से मात्र 2 या 3 दवाओं में ही गौमूत्र का प्रयोग किया जाता है तथा चूर्ण तो सभी उससे मुक्त होते हैं। इस भ्रांति का अब भी अधिकांश मुस्लिमों पर प्रभाव है तथा इसी कारण वे आयुर्वेद से दूरी बनाए हुए हैं।


2. ब्रिटिश काल


इस काल में अंग्रेज़ों ने कई भ्रांतियाँ हम भारतीयों में रोपीं। बहुत सी राजनैतिक थीं, लेकिन आयुर्वेद के बारे में एक भ्रांति बनाई गई कि ये दवाएँ बेअसर होती हैं तथा यदि असर भी करती हैं तो काफी समय के बाद। इन भ्रांतियों को फैलाकर वे त्वरित असरकारक अंग्रेज़ी दवाओं को भारत में स्थापित कर गए।


3. मल्टीनेशनल कम्पनियों का काल


जैसे-जैसे लोगों में शिक्षा का स्तर बढ़ा, आयुर्वेद को लेकर लोगों की विचारधारा बदली और बहुत बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ने लगे। इससे भारत की अर्थव्यवस्था में उछाल आया तथा अंग्रेज़ी दवाओं से लोग दूर होने लगे। ऐसे में मल्टीनेशनल कम्पनियों ने मीडिया के साथ मिलकर आयुर्वेद को बदनाम करना शुरू किया तथा इन्होंने वे भ्रम फैलाए जो कि इनकी कमज़ोरियाँ थीं जैसे ‘ये दवाएँ किडनी खराब करती हैं’, इन्होंने आयुर्वेद के साथ भी जोड़ दिया। लोग तब भी आयुर्वेद से जुड़ते रहे तो फिर इन्होंने यह शगूफ़ा छोड़ा कि आयुर्वेद की दवाओं में एलोपैथिक दवाएँ मिली होती हैं, विशेषतः ‘स्टेरॉइड्स’।


दष्प्रचार फैलने के कारण


1. एलोपैथिक चिकित्सकों की आयुर्वेद को लेकर अज्ञानता।


एलोपैथी के चिकित्सकों को आयुर्वेद की जड़ी-बूटियों के बारे में कुछ ज्ञान नहीं होता। उन्हें केवल अदरक, हल्दी, दूध या शहद के बारे में ही दादी माँ के नुस्खेवाला ज्ञान होता है। उन्हें आयुर्वेद की दिव्यता का कदापि अनुमान नहीं है। यदि उन्हें हम विशल्यकर्णी के बारे में बताएँ कि कैसे यह युद्ध में सैनिकों के तीर निकालने में काम आती थी और एक ही दिन में घाव भर देती थी, तो उन्हें इस पर बिल्कुल यकीन नहीं होगा। उन्हें दांत के कीड़ों को नष्ट करने के लिए उपयोग में ली जानेवाली जड़ी-बूटियों को हाथ के अंगूठे पर लेप कर नष्ट करनेवाली औषधियों के बारे में रत्तीभर भी ज्ञान नहीं। उन्हें तो वायुगोला या नाभि टलने जैसी किसी बीमारी के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं तो इसके लिए दी जानेवाली दवाओं और उनका चमत्कारी असर कहाँ पता होगा? उन्हें तो यह भी पता नहीं कि आयुर्वेदिक दवाओं से गाँठ अथवा गठान को बिना ऑपरेशन के केवल बाह्य प्रयोग द्वारा ठीक किया जा सकता है। उन्हें तो इस पर भी यकीन नहीं कि आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से हृदय के ब्लॉकेज हटाए जा सकते हैं। तो क्या उन्हें इस बात पर विश्वास होगा कि आयुर्वेद जड़ी-बूटियों से सायनोवियल फ्ल्यूड को पुनः उत्पन्न किया जा सकता है? अस्थमा के रोगी को हरिद्रा, कनक आदि औषधियों से एलर्जी के प्रभाव से मुक्त किया जा सकता है। वह रसमाणिक्य, टंकण, गंधक रसायन के बारे में क्या जानें कि यह चर्म रोगों को किस प्रकार नष्ट कर देते हैं?


अतिम 3 उदाहरणों का वर्णन इसलिए किया है कि इन तीनों रोगों (जोड़ों का दर्द, अस्थमा और चर्मरोग) में एलोपैथिक चिकित्सक स्टेरॉइड्स का बहुतायत से प्रयोग करते है। उन्हें ऐसा लगता है कि बिना स्टेरॉइड्स के इन रोगों में लाभ नहीं पाया जा सकता, लेकिन उन्हें कौन बताए की कनक, अर्क, वातगजाकुंश रस, रसराज रस, वृहदवात चिंतामणि, कुमारी आदि स्टेरॉइड्स से भी ज़्यादा असरकारक हैं तथा बिना किसी दुष्प्रभाव के इन रोगों में लाभ पहुँचा सकते हैं।


आयुर्वेदः निर्दोष एवं उत्कृष्ट चिकित्सा-पद्धति


आयुर्वेद एक निर्दोष चिकित्सा पद्धति है। इस चिकित्सा पद्धति से रोगों का पूर्ण उन्मूलन होता है और इसकी कोई भी औषधि दुष्प्रभाव (साईड इफेक्ट) उत्पन्न नहीं करती। आयुर्वेद में अंतरात्मा में बैठकर समाधिदशा में खोजी हुई स्वास्थ्य की कुंजियाँ हैं। एलोपैथी में रोग की खोज के विकसित साधन तो उपलब्ध हैं लेकिन दवाइयों की प्रतिक्रिया (रिएक्शन) तथा दुष्प्रभाव (साईड इफेक्टस) बहुत हैं। अर्थात् दवाइयाँ निर्दोष नहीं हैं क्योंकि वे दवाइयाँ बाह्य प्रयोगों एवं बहिरंग साधनों द्वारा खोजी गई हैं। आयुर्वेद में अर्थाभाव, रूचि का अभाव तथा वर्षों की गुलामी के कारण भारतीय खोजों और शास्त्रों के प्रति उपेक्षा और हीनदृष्टि के कारण चरक जैसे ऋषियों और भगवान अग्निवेष जैसे महापुरुषों की खोजों का फायदा उठानेवाले उन्नत मस्तिष्कवाले वैद्य भी उतने नहीं रहे और तत्परता से फायदा उठानेवाले लोग भी कम होते गये। इसका परिणामी दिखायी दे रहा है।


हम अपने दिव्य और सम्पूर्ण निर्दोष औषधीय उपचारों की उपेक्षा करके अपने साथ अन्याय कर रहे हैं। सभी भारतवासियों को चाहिए कि आयुर्वेद को विशेष महत्त्व दें और उसके अध्ययन में सुयोग्य रूचि लें। आप विश्वभर के डॉक्टरों का सर्वे करके देखें तो एलोपैथी का शायद ही कोई ऐसा डॉक्टर मिले जो 80 साल की उम्र में पूर्ण स्वस्थ, प्रसन्न, निर्लोभी हो। लेकिन आयुर्वेद के कई वैद्य 80 साल की उम्र में भी निःशुल्क उपचार करके दरिद्रनारायणों की सेवा करनेवाले, भारतीय संस्कृति की सेवा करनेवाले स्वस्थ सपूत हैं।


कछ वर्ष पहले न्यायाधीश हाथी साहब की अध्यक्षता में यह जाँच करने के लिए एक कमीशन बनाया गया था कि इस देश में कितनी दवाइयाँ जरूरी हैं और कितनी बिनजरूरी हैं जिन्हें कि विदेशी कम्पनियाँ केवल मुनाफा कमाने के लिए ही बेच रही हैं। फिर उन्होंने सरकार को जो रिपोर्ट दी, उसमें केवल 117 दवाइयाँ ही जरूरी थीं और 8400 दवाइयाँ बिल्कुल बिनजरूरी थीं। उन्हें विदेशी कम्पनियाँ भारत में मुनाफा कमाने के लिए ही बेच रही थीं और अपने ही देश के कुछ डॉक्टर लोभवश इस षडयंत्र में सहयोग कर रहे थे।


अतः हे भारतवासियों! हानिकारक रसायनों से और कई विकृतियों से भरी हुई एलोपैथी दवाइयों को अपने शरीर में डालकर अपने भविष्य को अंधकारमय न बनायें।


शुद्ध आयुर्वेदिक उपचार-पद्धति और भगवान के नाम का आश्रय लेकर अपना शरीर स्वस्थ व मन प्रसन्न रखिये।


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