Wednesday, February 23, 2022

अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन 1855 से शुरू हो गया था जिसका मिटा दिया इतिहास...

30 जून 2021

azaadbharat.org


भारत की आज़ादी के प्रथम प्रयास 1855 में सन्थाल पहले ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अंग्रेजों को समय दिया देश छोड़ कर भाग जाने का ... ये किसी भी अंग्रेज के लिए चौंक जाने जैसी बात थी। 



सवाधीनता संग्राम में 1855 ई. एक मील का पत्थर है; पर वस्तुतः यह समर इससे भी पहले प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में हुआ 'संथाल हूल' या 'संथाल विद्रोह' इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। संथाल परगना उपजाऊ भूमि वाला वनवासी क्षेत्र है। वनवासी स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी तथा सरल होते हैं। इसका जमींदारों ने सदा लाभ उठाया है। कीमती वन उपज लेकर उसीके भार के बराबर नमक जैसी सस्ती चीज देना वहां आम बात थी। अंग्रेजों के आने के बाद ये जमींदार उनसे मिल गये और संथालों पर दोहरी मार पड़ने लगी। घरेलू आवश्यकता हेतु लिये गये कर्ज पर कई बार साहूकार 50 से 500 प्रतिशत तक ब्याज ले लेते थे।

 

1789 में संथाल क्षेत्र के एक वीर बाबा तिलका मांझी ने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध कई सप्ताह तक सशस्त्र संघर्ष किया था। उन्हें पकड़कर अंग्रेजों ने घोड़े की पूंछ से बांधकर सड़क पर घसीटा और फिर उनकी खून से लथपथ देह को भागलपुर में पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी।


1855 में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध महान संथाल विद्रोह हुआ था। संथाल विद्रोह को संताली भाषा में ‘संताल हूल’ कहते हैं। संथाल परगना का पूर्ववर्ती नाम ‘दामिनी को’ था यह नाम ब्रिटिश शासकों ने दिया था। ‘दामिनी को’ क्षेत्र पहले बीहड़ जंगल था। अंग्रेज शासक जंगल की कटाई कर खेती लायक जमीन बनाने के लिए आसपास के क्षेत्र के संताल आदिवासियों को मजदूरी करने के लिए प्रलोभन देकर लाए थे।


सथाल आदिवासियों ने पहले अंग्रेजी हुकूमत के आदेशानुसार जंगल-झाड़ साफ किया और खेती लायक जमीन बनाई। उस जमीन पर जब संथालों ने खेती करनी शुरू की तो ‘दिकू महाजन’ लगान वसूलने लगे। इसके साथ ही ब्रिटिश पुलिस संथालों पर अत्याचार व शोषण करने लगे। जब संथालों पर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा शोषण, जुल्म, अन्याय, अत्याचार की अति हो गई, तब संथालों को विद्रोह के लिए विवश होना पड़ा। उस समय दुमका स्थित बरहेट प्रखंड के अंतर्गत भोगनाडीह गांव में चुन्नू मुर्मू की छह संतानें थीं, जिनमें चार लड़के और दो लड़कियां थीं। चार भाइयों और दो बहनों के नाम थे- सिद्धू मुर्मू, कान्हू मुरमू, चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू, फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू। इन सगे भाई-बहनों ने संथाल समाज के लोगों को जागृत किया, संगठित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के लिए ललकारा। 1855 में 30 जून काे भोगनाडीह गांव स्थित एक विशाल मैदान में संथाल जनजाति के लोग एकत्र हुए थे जिनका नेतृत्व सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू कर रहे थे। उस दिन दोनों भाइयों ने ब्रिटिश शासकों को ललकारा और संथाल हूल के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया। उसी दिन यह संकल्प लिया गया कि हमारी मेहनत की कमाई खेती-बाड़ी, जल-जंगल-जमीन हमारी है। अंग्रेजों की गुलामी अब हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। इस उद्घोष के साथ उसी दिन से संथाल विद्रोह की शुरुआत हुई।


इससे बौखला कर शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास किया, पर ग्रामीणों के विरोध के कारण वे असफल रहे। अब दोनों भाइयों ने सीधे संघर्ष का निश्चय कर लिया। इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र से अंग्रेज शासन लगभग समाप्त ही हो गया। इससे उत्साहित होकर एक दिन 50,000 संथाल वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिये। यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी। पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पकूर किले पर कब्जा कर लिया। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये। इससे कम्पनी के अधिकारी घबरा गये। अतः पूरे क्षेत्र में 'मार्शल लॉ' लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया।

 

अब अंग्रेजी सेना को खुली छूट मिल गयी। अंग्रेजी सेना के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र थे, जबकि संथाल वीरों के पास तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार, अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने लगी। इस युद्ध में लगभग 20,000 वनवासी वीरों ने प्राणाहुति दी। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने इस युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ रूरल बंगाल' में लिखा है, ''संथालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था। जबतक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे। जबतक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा। ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो।''

 

इस संघर्ष में सिद्धू और कान्हू के साथ उनके अन्य दो भाई चांद और भैरव भी वीरगति को प्राप्त हो गये। इस घटना की याद 30 जून को प्रतिवर्ष 'हूल दिवस' मनाया जाता है। कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में इस घटना को जनक्रांति कहा है। भारत सरकार ने भी वीर सिद्धू और कान्हू की स्मृति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए एक डाक टिकट जारी किया है। आज भारत के शौर्य के उन सभी सितारों को उनके उद्घोष दिवस पर उन्हें बारम्बार नमन।


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