29 जुलाई 2019
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मौलवी अब्दुल खलिक मीथा का एक बयान पिछले दिनों एक अखबार में आया। 78 वर्षीय मीथा पाकिस्तान के सिंध प्रांत का है। उसने कुबूल किया कि वह हिंदू लड़कियों को मुस्लिम बनाने के मिशन पर था। सैकड़ों लड़कियों को मुसलमान बनाया। उसके पुरखों ने भी यही किया और उसके नौ बच्चे भी यही करेंगे।
मीथा मामूली आदमी नहीं है। वह सिंध में धर्मांतरण के सबसे बड़े अड्डे के रूप में बदनाम धरकी शहर की भरचूंदी दरगाह का सरगना है, जहाँ पिछले नौ वर्षों में 450 लड़कियों को इस्लाम कुबूल करवाया गया। वह प्रधानमंत्री इमरान खान का करीबी भी माना जाता है। मीथा ने अपने पुरखों की बात की। मुझे समझ में नहीं आया कि वह किन पुरखों की बात कर रहा है?
सिंध की बर्बादी या कहें सिंध से शुरू होकर हिंदुस्तान की बर्बादी की दास्तान जिस एक नाम से शुरू होती है वह है मोहम्मद बिन कासिम का। कासिम ने 712 में सिंध को फतह करके बुरी तरह लूटा, औरतों-बच्चों को गुलाम बनाया, कत्लेआम के कई किस्से हैं और इस तरह एक नई विचारधारा से हिंदुस्तान का परिचय कराया।
मीथा के पुरखे 712 ईसवी के पहले सिंध में कौन थे? ये वही लोग थे, जिन्होंने पूरे 80 साल तक अरबों से डटकर मुकाबला किया और हरेक जगह हराया। 712 के जून महीने में वे हार गए और यह कैसी विडंबना है कि अब मीथा जैसे लोग अपनी बल्दियतें कासिम और गजनवी से जोड़ने में गर्व महसूस करते हैं।
और अगर कासिम, गज़नवी, गौरी भी उनके पुरखे हैं तो दो-चार पीढ़ी पहले उनके भी वैसे ही हालातों में पहचानें बदल दी गईं थीं, जैसा सिंध में हुआ या बाद में बाकी हिंदुस्तान के कोने-कोने में। तलवार के जोर पर या ओहदों के लालच में चिपकाए गए नए नाम, नई पहचान, नई इबादतगाहें और फिर याददाश्त पर जमी दशकों-सदियों की गर्द। अब मीथा जैसे लोगों पर है किन पुरखों तक अपनी पहचान को ले जा पाते हैं।
आखिर हिंदुओं को इस तरह मुसलमान बनाने की ज़िद क्यों? मीथा जैसों की बातों पर बाकी इस्लामी इदारों की खामोशी साबित करती है कि वे इस जहरीली ज़िद से मुतमईन हैं। वर्ना कोई क्यों नहीं कहता कि मीथा पागल है। वह मुस्लिम हो ही नहीं सकता जो ऐसी बात सोचे भी। आखिर वे लोग कौन थे, जिन्होंने ऐसा वैचारिक ज़हर दिमागों में भरा? हिंदुस्तान में मुस्लिम सल्तनत कायम होने के 40 साल के भीतर बाकायदा दरबार में ये तय किया गया था कि अब हिंदुओं का क्या किया जाए? आइए ज़रा उस जख्मी इतिहास में झाँककर देखें कि तब क्या चल रहा था?
मंगाेल हमलावर चंगेज़ खां और उसके पोते हलाकू खां के हमलों ने तब इराक-ईरान के इलाकों को बुरी तरह बर्बाद कर दिया था। तब तक इराक-ईरान को इस्लाम की चपेट में आए तीन-चार सदियाँ हो चुकी थीं। चंगेज और हलाकू के हमलों से बेजार इस्लाम के हज़ारों जोशीले अनुयायी हिंदुस्तान की तरफ भागे थे। ये बिल्कुल आज के सीरिया या यमन जैसे मुल्कों के शरणार्थियों की शक्ल में दिल्ली के आसपास फैले। यह ईस्वी सन् 1200-1260 की बात है।
हलाकू ने 1258 में इस्लाम के खलीफाओं की लूट की दौलत से मालामाल बगदाद को मिट्टी में मिला दिया था। इराक के इस इलाके का ऐसा ही हाल इस्लाम के नए-नए जोश में आए अरबों ने भी चंद सदियों पहले किया था। एक तरह से कहानी दोहराई गई थी। कत्ल और लूट के रोंगटे खड़े कर देने वाले जैसे कारनामे करते हुए इस्लाम के खलीफाओं ने बगदाद को रौनकदार बनाया था, वह रौनक हलाकू नाम के उसी तरह के एक और अंधड़ ने धूल में मिला दी।
धर्मांतरित बगदादी मुहाजिरों की लंबी कतार चंगेज-हलाकू के हमलों के कारण दिल्ली का रुख कर रही थी। इनकी तादाद इस तेजी से बढ़ी कि जियाउद्दीन बरनी ने तारीखे-फिराेजशाही में लिखा- “देहली और देहली के आसपास के इलाके इस्लामी तालीम और मुस्लिम आलिमों के गढ़ बन चुके थे।” बरनी नाम का यह शख्स उस समय का आंखों देखा हाल दस्तावेजों पर दर्ज कर रहा था।
खुद जियाउद्दीन बरनी की शुरुआती जिंदगी इन्हीं बगदादी मुहाजिर भगोड़ों के बीच गुज़री थी, जिनकी तकदीर से दिल्ली पर कुछ ही साल पहले मुहम्मद गोरी के तीसरे हमले में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद कब्ज़ा किया जा चुका था और कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ शुरू हुई गुलामों की हुकूमत में उसके फौजी बंगाल और गुजरात तक धावे मारना शुरू कर चुके थे।
यह ऐसा समय था, जब पूरा हिंदुस्तान एक खुली शिकारगाह में सामने था और जंगली कुत्तों, भूखे-भेड़ियों और लकड़बग्गों के झुंड सिंध की तरफ से झपट्टे मारना शुरू कर चुके थे। सिंध तक ये अरबी नस्ल के थे। सिंध के बाद तुर्क और अफगानियों ने इस हिंसक फैलाव को तेजी से आगे बढ़ाया।
याद रखिए, जब अपनी जानमाल की रक्षा के लिए मुसलमानों के जत्थे दिल्ली आए तो वे एक मुस्लिम देश में आए थे। यह सुलतान इल्तुतमिश के समय की बात है। बरनी के मुताबिक यहाँ उन्हें यह देखकर हैरत हुई कि हिंदुओं में शिर्क और कुफ्र (मूर्तिपूजा) जड़ पकड़े हुए हैं। हिंदू न तो किताब वाले हैं (मतलब कुरान को नहीं मानते) और न ही जिम्मी (दूसरे दरजे के नागरिक) हैं। अगर वे अपने सिर पर तलवार या सेना पाते हैं तो खिराज (जज़िया, गैर मुस्लिम यानी हिंदुओं से वसूला जाने वाला टैक्स) अदा कर देते हैं। अन्यथा विरोध करते हैं।
दिल्ली के तख्त पर तब इल्तुतमिश का राज था, जो रज़िया सुलतान का बाप और गुलाम वंश का ही एक सुलतान था। बगदाद की तरफ से अपनी जान बचाकर भागकर आए इन तथाकथित आलिमों को यहाँ आकर हिंदुओं की यह हरकत बेहद नागवार गुज़री। इस्लाम की हुकूमत में दूसरे मजहब के लोग कैसे अपनी पूजा-पद्धतियों को जारी रख सकते हैं? यह बड़े विवाद का विषय बन गया। इस समस्या का हल क्या है? तीन विकल्पों पर बहस होने लगी। पहला, हिंदुओं की हत्या कर दी जाए और दूसरा, उन्हें इस्लाम कुबूल करने पर मजबूर किया जाए, तीसरा, उनसे खिराज वसूल कर मूर्तिपूजा, कुफ्र और काफिरी पर बेखौफ चलने दिया जाए?
दिल्ली में यह गरमागरम बहस जारी रही और सब इस बात पर एक सुर में राजी हुए कि मुस्तफा अलैहिस्सलाम (पैगंबर मोहम्मद) के सबसे बड़े दुश्मन हिंदू हैं, क्योंकि मुस्तफा अलैहिस्सलाम के मजहब में आया है कि हिंदुओं को कत्ल करा दिया जाए, बेइज्जत करके उनकी धन-दौलत उनसे छीन ली जाए। इनमें भी हिंदू ब्राह्मणों को खासतौर पर सबसे ऊपर रखा गया।
इस विवाद के आखिरी हल के लिए ये शरणार्थी आलिम सुलतान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के दरबार में हाजिर हुए और इस समस्या काे बहुत विस्तार से उसके सामने रखा। एक तरह से यह दिल्ली पर कब्ज़ा करने के कुछ ही दशक बाद बाकायदा हिंदुओं के भविष्य का फैसला करने के लिए हुआ पहला दरबार था, जिसमें सुलतान के सामने प्रस्ताव रखा गया कि दीने-हनीफी के लिए यह उचित होगा कि हिंदुओं को कत्ल करा दिया जाए या उन्हें इस्लाम कुबूल करने के लिए मजबूर किया जाए। तीसरे विकल्प को इस प्रस्ताव में नकारते हुए कहा गया कि हिंदुओं से खिराज या जज़िया लेकर संतुष्ट नहीं होना चाहिए।
सुलतान ने इन शांतिदूतों की पूरी बात तसल्ली से सुनकर वज़ीर निज़ामुलमुल्क जुनैदी को हुक्म दिया कि वह आलिमों की बात पर जवाब दे। जुनैदी ने सुलतान के सामने ही कहा- “इसमें कोई शक नहीं कि आलिमों ने जो फरमाया है वह सच है। हिंदुओं के विषय में यही होना चाहिए कि या तो उनका कत्लेआम कर दिया जाए या उन्हें इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर किया जाए, क्योंकि वे मुस्तफा अलैहिस्लाम के कट्टर दुश्मन हैं। न तो वे जिम्मी हैं और न ही उनके लिए हिंदुस्तान में कोई किताब भेजी गई है और न ही कोई पैगंबर।”
इसके आगे जुनैदी की बात गौर करने लायक है। वह कहता है- “किंतु हिंदुस्तान अभी-अभी हमारे अधिकार में आया है। हिंदू यहाँ बहुत बड़ी तादाद में हैं। मुसलमान उनके बीच दाल में नमक बराबर हैं। कहीं ऐसा न हो कि हम ऐसा कोई हुक्म देकर उस पर अमल शुरू कर दें और वे सब इकट्ठे होकर चारों तरफ से बगावत खड़ी कर दें। अगर ऐसा हो गया तो हम बहुत बड़ी मुश्किल में पड़ सकते हैं। जब कुछ साल और बीत जाएँगे और राजधानी के आसपास दूसरे सूबे और कस्बे मुसलमानों से भर जाएँगे, बड़ी फौज इकट्ठा हो जाएगी उस समय हम यह फरमान दे सकेंगे कि या तो हिंदुओं का कत्ल करा दिया जाए या उन्हें इस्लाम कुबूल करने के लिए बेइज्जत किया जाए।”
आलिम हिंदुओं को कत्ल कराने के लिए इस कदर अड़े हुए थे कि वज़ीर का उत्तर सुनकर सुलतान से बोले- “अगर हिंदुओं के कत्लेआम का हुक्म नहीं दिया जा सकता तो सुलतान को चाहिए कि वह अपने दरबार और शाही इमारतों में उनका आदर-सम्मान न होने दे। हिंदुओं को मुसलमानों के बीच बसने से रोका जाए। मुसलमानों की राजधानी, सूबों और कस्बों में मूर्ति पूजा और कुफ्र हर हाल में रोक दी जाए।” जियाउद्दीन बरनी कहता है कि सुलतान इल्तुतमिश और वजीर ने आलिमों के इन तीनों सुझावों को मान लिया था।
अब आप उस समय की दिल्ली और हिंदुस्तान की कल्पना कीजिए। जिस दिन इल्तुतमिश के दरबार में हिंदुओं के वर्तमान और भविष्य के फैसले लिए जा रहे थे, तब हिंदुओं के घरों और दुकानों और लगातार खतरे में पड़े छोटे-बड़े राज्यों में जिंदगी कैसी गुज़र रही होगी? क्या वे आने वाले कल में बढ़ते संकटों की भनक पा रहे थे?
और बगदाद से आए इन भगोड़े और कायर मुहाजिरों को, जो पिछली चार-पाँच सदियों में अरब हमलावरों के हाथों ऐसे ही बेरहम और अमानवीय तरीकों से धर्मांतरित कर दिए गए थे, अब अपनी भूली-भटकी याददाश्त के साथ इस्लाम के जोश से भरे हुए थे और उन्हें हिंदुस्तान के काफिरों को निशाना बनाने की सूझ रही थी। यहाँ वे अपनी ताकत की नुमाइश शुरू कर चुके थे। ठीक इसी समय दिल्ली के महरौली इलाके में 27 हिंदू मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा था और इनके मलबे से एक मस्जिद कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के साथ एक ऊँची मीनार का काम शुरू हो चुका था। यह बिल्कुल इसी समय घट रहा था।
हम एक बार फिर उसी बगदाद में लौटते हैं, जिसे जनवरी 1258 में हलाकू ने घेरकर फतह किया। हलाकू के फौजी भूखे भेड़ियों की तरह शहर में दाखिल हुए थे। उन्होंने अब्बासी खलीफा को कत्ल करके पूरे शहर को लूटा, महलों की औरतों को सड़कों पर घसीटा, शहर की सारी मस्जिदों और 36 पुस्तकालयों को जलाकर राख कर दिया। ऐसा अंदाज़ा है कि करीब 10 लाख लोग उस हमले में कत्ल किए गए थे।
उस तबाही से जान बचाकर लोग शरणार्थियों के रूप में हिंदुस्तान की तरफ आए थे। ज़रा सोचिए कि यह आज के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (इस्लामिक स्टेट) के सीरिया पर कब्ज़े के बाद देखे गए नृशंस नजारों से कितना मिलता-जुलता मामला है। वहाँ यजीदी समुदाय के साथ क्या हुआ? अभी एक यजीदी औरत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सामने रोना रो रही थी कि उसके खानदान को किस तरह कत्ल कर दिया गया, अब भी कई लोग गायब हैं। वह एक शरणार्थी के रूप में बचकर भाग निकली थी।
मीथा जैसी मानसिकता वाले आज के पाकिस्तान, बांग्लादेश और हिंदुस्तान के मुसलमान थोड़ा ठंडे दिमाग से सोचें और इन ब्यौरों की बारीकी में जाएँ। ये उनके लिए किसी लिहाज से गर्व करने लायक नहीं हैं। बरनी ने इस्लाम के विस्तार के जो शुरुआती फ्रेम सामने रखे हैं, वह उन बेरहम भगोड़े आलिमों और तलवार के जोर पर ताकत हासिल करने वाले क्रूर विदेशी सुलतानों की कामयाब शुरुआत थी।
ये ब्यौरे साबित करते हैं कि आज की मुस्लिम आबादी उसी आतंक की उपज है, जो सात सदियों तक हमारे मजबूर और बेइज्ज़त पुरखों ने एक साथ झेला। जो जब कमज़ोर पड़ गया, धर्मांतरित हो गया। हम एक ही मुल्क के हैं। हमारे पुरखे एक हैं। हम अलग कैसे हुए, बरनी के ब्यौरे उस अंधेरे अतीत के दूसरे छोर पर हमारा कुछ मार्गदर्शन करते हैं। वे जिस विचार का अनुयायी खुद को मानते हैं, असल में उसके पीड़ित हैं। पीढ़ियों से पीड़ित।
अब थोड़ा परिचय जियाउद्दीन बरनी का। बरनी की पैदाइश उसी दौर की है। अलाउद्दीन खिलजी के समय उसका बाप मुईदुलमुल्क बरन में ऊँचे ओहदे पर था। अलाउद्दीन के देवगिरि हमले के समय उसका एक चाचा अलाउलमुल्क, दिल्ली का कोतवाल था। मोहम्मद बिन तुगलक के समय तक जियाउद्दीन ने खूब चांदी काटी। वह खुद ऊँचे ओहदों पर रहा। बेरहम सुलतान की शान में खूब कसीदे लिखे। कत्लोगारत के जरिए इस्लाम की तरक्की की आखिरी दम तक दुआएँ कीं और आने वाले समय में हिंदुस्तान के दूर-दराज इलाकों में कब्ज़ा करने वाले भावी सुलतानों और नवाबों को एक से बढ़कर एक तरकीबें बताईं कि इस्लाम को फैलाने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है?
वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था और सुन्नियों के अलावा दुनिया में किसी को भी इज्जत से जीने का हकदार नहीं मानता था। हिंदुस्तान के हिंदू काफिरों के सर्वनाश के लिए वह मजहबी दलीलों के साथ हमेशा एक पैर पर तैयार रहा। सहीफै नाते मुहम्मदी नाम की किताब में उसने लिखा-“काफिर मुस्तफा अलैहिस्सलाम के और उनके मजहब के इस वजह से दुश्मन हैं, क्योंकि मुस्तफा अलैहिस्सलाम उनके धर्मों के खिलाफ थे।’
जब मैं इतिहास के इस मुश्किल दौर के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि आज के जिन्ना, जिलानी, जरदारी, गिलानी, आजाद, अब्दुल्ला, आजम, औवेसी, भट्ट, भुट्टो, इरफान, इमरान, इकबाल, इमाम, खान, सलमान, सुलेमान, हबीब, हाफिज मीथा और मुफ्तियों की बल्दियतें पीछे कहाँ जाकर जुड़ती होंगी?
वे अभागे लोग जो जिम्मी बनकर रहे, जज़िया चुकाते रहे और जब सब बर्दाश्त के बाहर हो गया तो नया मजहब कुबूल कर लिया। जान बचाने के लिए धर्म बदल लिया। मजबूरी में वे हुक्मरानों के हम मजहबी हो गए। ऐसा हरेक सुलतान और बादशाह की हुकूमत में लगातार हर कहीं होता रहा। कुछ पीढ़ियों तक उन्हें अपने असली पुरखों की याद रही ही होगी। लेकिन अब यह गुमशुदा याददाश्त की एक दयनीय सचाई है, जिस पर जमी सदियों की धूल को साफ करने की ज़रूरत है। अतीत में हुई पुरखों की दुर्गति को कोई कैसे भूल सकता है? - विजय मनोहर तिवारी Source-hindi.swarajyamag
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